योगी आदित्यनाथ को यूपी विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए पीछे की वजह क्या है।
विजय कुमार यादव/ उत्तर प्रदेश लखनऊ में योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल विस्तार के लिए लगता है जन आशीर्वाद यात्रा की समाप्ति का इंतजार रहा आखिर जन आशीर्वाद यात्रा का उद्देश्य मोदी सरकार के साथ साथ चुनावी राज्यों में बीजेपी सरकार के प्रमोशन भी तो हो रहा हैं और वैसे भी ओबीसी कैबिनेट के प्रचार-प्रसार का मकसद भी तो चुनाव के लिए ही तो है। खबर आयी है कि पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का यूपी दौरा खत्म हो जाये फिर फौरन ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करेंगे। कौन कौन मंत्री बनेगा तकरीबन फाइनल है योगी आदित्यनाथ दिल्ली दरबार में हाजिरी लगाकर मंत्रियों के नाम पर मंजूरी भी ले चुके हैं। और राज्यपाल से मुलाकात कर इस सिलसिले में मजबूत इशारा भी कर चुके हैं। संभावित मंत्रियों की सूची से एक नाम फिर से बादलों की तरह मंडराने लगा है। कांग्रेस से बीजेपी का ब्राह्मण चेहरा बने जितिन प्रसाद बाकी नामों में बीजेपी के अलावा सहयोगी दलों से भी हो सकते हैं। मंत्रियों की जिस नयी सूची की चर्चा है उसमें वो नाम नहीं बताया जा रहा है जिसकी योगी आदित्यनाथ के पिछले दिल्ली दौरे तक खूब चर्चा रही अरविंद शर्मा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बरसों भरोसेमंद नौकरशाह रहे अरविंद शर्मा संगठन में भेजे जा चुके हैं। और फिलहाल यूपी बीजेपी के करीब डेढ़ दर्जन उपाध्यक्षों में से एक हैं। मंत्रिमंडल विस्तार की संभावनाओं के बीच चर्चा का जो दूसरा टॉपिक है वो है बड़े नेताओं को विधानसभा चुनाव के मैदान में उतारने की बीजेपी की तैयारी अभी तो संभावित उम्मीदवारों की सूची में योगी आदित्यनाथ और उनके कुछ कैबिनेट साथियों का ही जिक्र है, लेकिन अगर पश्चिम बंगाल प्रयोग दोहराया गया तो केंद्रीय मंत्री और सांसद भी हो सकते हैं! सवाल ये है कि आखिर बीजेपी नेता अमित शाह का बड़े नेताओं को चुनाव लड़ाने पर ये जोर क्यों है। कहीं बीजेपी अपने नेताओं को चुनाव मैदान में उतार कर उनकी हैसियत तो नहीं टटोलना चाहती है। या पार्टीय मालूम करना चाहती है कि बीजेपी कितने पानी में है। अगर योगी आदित्यनाथ के प्रत्यक्ष चुनाव लड़ने की बात है तो विधान परिषद का सदस्य तो वो बहुत बाद में बने हैं, पहले तो वो लगातार पांच बार गोरखपुर लोक सभा सीट से सांसद रहे हैं। बेशक विधानसभा चुनाव कोई जिला परिषद अध्यक्ष या ब्लॉक प्रमुख चुनाव जैसा तो नहीं ही है, लेकिन ऐसा भी तो नहीं कि योगी आदित्यनाथ के लिए विधानसभा चुनाव लड़ना कोई मुश्किल वाली बात हो. विधानसभा चुनाव के नतीजों को लेकर शक शुबहों की गुंजाइश भले हो लेकिन योगी आदित्यनाथ के यूपी की किसी भी सीट से सुरक्षित सीटों को छोड़ कर, चुनाव लड़ना बायें हाथ के खेल जैसा ही लगता है। मोदी-शाह के मोर्चे पर होते हुए योगी आदित्यनाथ को चुनाव मैदान में उम्मीदवार बन कर उतरने की जरूरत क्यों पड़ रही है योगी आदित्यनाथ के साथ साथ उनके दोनों साथी डिप्टी सीएम केशव मौर्य और दिनेश शर्मा के भी चुनाव लड़ने की संभावना जतायी जा रही है. ये दोनों भी ऐसे नेता हैं। पहले से भी और अब तो कहना ही क्या अपने इलाके में खड़े हों तो चुनाव जीत कर ही निकलेंगे, भले ही दूसरे उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित न करा पायें बीजेपी के यूपी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह का भी करीब करीब वैसा ही हाल है। बुंदेलखंड में कम से कम एक सेफ सीट तो मिल ही सकती है जहां से जीत की गारंटी हो मिलता जुलता ही हाल उन नेताओं का भी होगा जिन पर बीजेपी नेतृत्व की निगाह होगी या फिर वे फिलहाल योगी मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं। एक आम अवधारणा रही है कि बड़े नेता जिस सीट से चुनाव लड़ते हैं तो आस पास के इलाकों पर भी उसका असर होता है – और पार्टी के उम्मीदवारों को लोगों के समर्थन मिलने की संभावना बढ़ जाती है. अगर कोई बड़ा नेता चुनाव मैदान में उतरता है तो भले ही अपने लिए चुनाव प्रचार न करे, लेकिन एक बार नामांकन दाखिल करने या फिर एक-दो बार आगे भी इलाके में पहुंच गया तो रास्ते में आने वाली सीटों के लिए चुनाव प्रचार का कार्यक्रम अपनेआप बन जाता है। फर्ज कीजिये योगी आदित्यनाथ गोरखपुर की किसी सीट से चुनाव लड़ते हैं। ऐसा हुआ तो क्या चमत्कार हो जाएगा और नहीं हुआ तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा. योगी आदित्यनाथ तो सांसद रहते ही बीजेपी उम्मीदवार शिव प्रताप शुक्ल को एक नये नवेले डॉक्टर को मैदान में उतार कर अकेले दम पर शिकस्त दे दिये थे। फिर योगी आदित्यनाथ को किसी सीट से चुनाव लड़ने की जरूरत क्यों आ पड़ी है? गोरखपुर जैसा ही अयोध्या का मामला लगता है। बीजेपी उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने के लिए योगी आदित्यनाथ की उम्मीदवारी नहीं, गोरखपुर और अयोध्या जैसे इलाके ही काफी हैं। बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने का बीजेपी का ताजातरीन प्रयोग पश्चिम बंगाल में देखने को मिला – शुभेंदु अधिकारी को तो नंदीग्राम से चुनाव लड़ना ही था. ममता बनर्जी को ललकारने के बाद उनके भी नंदीग्राम में धावा बोल देने के बाद मुकाबला भी दिलचस्प हो गया था – बीजेपी के मनमाफिक माहौल तो बना ही, नतीजे भी फेवर में ही आये बीजेपी ने मुकुल रॉय ही नहीं, अपने राज्य सभा सांसद स्वपनदास गुप्ता के साथ साथ तत्कालीन केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो को भी विधानसभा का टिकट पकड़ा दिया – और वही उनकी मंत्री पद से छुट्टी की बड़ी वजह भी बना. चुनाव हारे तो स्वपनदास गुप्ता भी थे, लेकिन उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा अब सवाल ये उठता है कि क्या बाबुल सुप्रियो को ठिकाने लगाने के मकसद से ही चुनाव लड़ाया गया था। क्योंकि चुनाव तो स्वपनदास गुप्ता भी हारे थे। लेकिन उनकी पोजीशन रिस्टोर हो गयी और बाबुल सुप्रियो को गाड़ी और बंगला छोड़ कर पैदल हो जाना पड़ा। बीजेपी के ट्रैक रिकॉर्ड पर नजर डालते हैं तो मालूम होता है कि चुनावी हार जीत कोई मायने नहीं रखती किसी भी नेता के साथ क्या सलूक किया जाना है या क्या चुनाव नतीजे आने के बाद क्या हश्र होना है। पहले से बीजेपी नेतृत्व की डायरी में दर्ज रहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो 2014 में अरुण जेटली अमृतसर से और स्मृति ईरानी अमेठी से चुनाव हार कर भी मंत्री बन जाती हैं। और रीता बहुगुणा जोशी इलाहाबाद संसदीय सीट से चुनाव जीत कर भी यूपी की योगी सरकार में मंत्री पद गवां देती हैं। भला क्यों ये तो ऐसा ही लगता है जैसे रीता बहुगुणा जोशी को यूपी कैबिनेट से हटाने के लिए रास्ता खोजा गया हो ये तो भरोसा होगा ही कि वो इलाहाबाद सीट से चुनाव जीत जाएंगी। इलाहाबाद उनके पिता हेमवती नंदन बहुगुणा की सीट रही है। हालांकि 1984 के आम चुनाव में वो भी कांग्रेस उम्मीदवार अमिताभ बच्चन से चुनाव हार गये थे। रीता बहुगुणा जोशी हाल ही में सुर्खियों में भी रहीं बीएसपी के एक पूर्व विधायक के बीजेपी ज्वाइन करने पर विरोध करने को लेकर रीता बहुगुणा जोशी का आरोप रहा कि जब वो जेल में थीं तो उसी बीएसपी नेता ने उनके घर में आग लगा दी थी हालांकि बाद में पूर्व बीएसपी विधायक के साथ भी बीजेपी ने वैसा ही व्यवहार किया जैसा कुछ साल पहले बीएसपी के ही नेता रहे बाबू सिंह कुशवाहा के साथ किया था। समझने वाली बात ये है कि रीता बहुगुणा जोशी को मंत्री पद से भले ही हटा दिया गया हो लेकिन ऐसी भी अंधेरगर्दी नहीं मची है कि उनकी शिकायतों पर कोई सुनवाई न हो। 2019 के आम चुनाव में विधानसभा से सीधे लोक सभा पहुंचने वाले बीजेपी के आठ नेता रहे रीता बहुगुणा जोशी की ही तरह तीन विधायक तो योगी सरकार में मंत्री भी थे। लेकिन सांसद बन जाने के बाद मंत्रिमंडल से बेदखल कर दिये गये। कांग्रेस छोड़ने के बाद भी रीता बहुगुणा जोशी अपनी विधानसभा सीट लखनऊ कैंट से ही यूपी विधानसभा पहुंची थीं। बतौर बीजेपी उम्मीदवार रीता बहुगुणा जोशी ने 2017 में मुलायम सिंह यादव की छोटी बहु अपर्णा यादव को शिकस्त दी थी। अगर यूपी चुनाव में भी बीजेपी पश्चिम बंगाल जैसा ही प्रयोग करने का मन बना चुकी है तो देखना होगा कि बलि के बकरे अब अगर भोजपुरी स्टार मनोज तिवारी को गोरखपुर की किसी सीट पर उतार दिया जाता है। तो मैसेज साफ होगा 2014 से पहले मनोज तिवारी गोरखपुर संसदीय सीट से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ कर हार चुके हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवेश वर्मा से बहस करने की चुनौती देकर अमित शाह ने जो संदेश दिया था उसका प्रतिफल चुनाव नतीजों के बाद आ ही गया मनोज तिवारी को दिल्ली प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया ऐसे और कितने नेताओं की बीजेपी में लिस्ट तैयार हो चुकी है देखना काफी दिलचस्प होगा।