रोहिंग्या मुसलमानों का संकट: दुनिया की चुप्पी में गुम एक कौम की पुकार
परमेश्वर सिंह / मुंबई: बांग्लादेश के कॉक्स बाजार के तंबू शिविरों में बैठा हर रोहिंग्या मुसलमान एक ही सवाल पूछता है – “क्या हमारा घर कभी लौटेगा?” साल 2017 में म्यांमार से पलायन के बाद बीते आठ वर्षों में इन शरणार्थियों का दर्द अब भी खत्म नहीं हुआ। दुनिया की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में से एक, रोहिंग्या संकट, अब वैश्विक भूख, गरीबी और उपेक्षा का प्रतीक बन चुका है। ‘पहचान छिनी, ज़मीन जली’ रोहिंग्या मुसलमान सदियों से म्यांमार के रखाइन प्रांत में बसे हुए थे, पर 1982 के “नागरिकता कानून” ने इन्हें गैर-नागरिक घोषित कर दिया। उसके बाद से वे अपने ही देश में “विदेशी” कहलाने लगे। 2017 में सेना द्वारा चलाए गए अभियान ने उनकी ज़मीन, घर और पहचान – सब कुछ राख में बदल दिया। हज़ारों लोगों की हत्या हुई और लगभग 7 लाख लोग सीमा पार कर बांग्लादेश भागे। ‘कॉक्स बाजार: बेघर लोगों का विशाल संसार’– आज बांग्लादेश के कॉक्स बाजार जिले में करीब 10 लाख रोहिंग्या मुसलमान शरण लिए हुए हैं। यह दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी शिविर है, लेकिन यहाँ की हालत बेहद भयावह है- भोजन के लिए राशन घटकर प्रति व्यक्ति मात्र 8 डॉलर प्रति माह रह गया है, शिविरों में बीमारियाँ और कुपोषण बढ़ रहे हैं, और लगातार बारिश से झोपड़ियाँ ढह रही हैं। 34 वर्षीय जमालुद्दीन, जो म्यांमार से भागकर आए थे, कहते हैं हम यहाँ जिंदा तो हैं, लेकिन जैसे हवा में लटके हैं। न देश है, न पहचान। भारत में भी बहस तेज – मुंबई, दिल्ली और जम्मू जैसे शहरों में करीब 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं। इनमें से कई के पास संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी (UNHCR) कार्ड हैं, परंतु नागरिकता का अधिकार नहीं। एमनेस्टी इंटरनॅशनल ने हाल ही में भारत सरकार से आग्रह किया कि रोहिंग्या परिवारों का जबरन प्रत्यर्पण रोका जाए, क्योंकि म्यांमार में अभी भी उनके लिए “सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।” अंतरराष्ट्रीय चिंता पर ठोस कदम नहीं वेटिकन प्रतिनिधि कार्डिनल माइकल फेलिक्स ज़र्नी ने हाल ही में बांग्लादेश का दौरा किया और कहा – यह केवल शरणार्थी संकट नहीं, बल्कि मानवता की परीक्षा है। संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों ने भी चेतावनी दी है कि यदि सहायता नहीं बढ़ाई गई तो 2026 तक खाद्य संकट और हिंसा में वृद्धि हो सकती है। भविष्य धुंधला, उम्मीद बाकी म्यांमार में अब भी राजनीतिक अस्थिरता और सशस्त्र संघर्ष जारी है। बांग्लादेश में राहत संसाधन सीमित हैं, और अंतरराष्ट्रीय ध्यान कम होता जा रहा है। रोहिंग्या समुदाय के लिए यह ना घर का, ना बाहर का जीवन बन गया है, जहाँ न कोई नागरिकता है, न कोई दिशा। फिर भी कई शरणार्थी अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी “पहचान की इस अंधेरी दीवार” को तोड़ सके। रोहिंग्या मुसलमानों की कहानी सिर्फ एक समुदाय की नहीं, बल्कि उस दुनिया की है जिसने मानवता को सीमाओं में बाँध दिया। मुंबई की गलियों से लेकर कॉक्स बाजार के शिविरों तक सवाल वही है- क्या कभी कोई देश उन्हें अपनाएगा, या इतिहास उन्हें बस आँकड़ों में गिनता रहेगा?